वो मुट्ठी भर
सुकून से भरे , खट्टे-मीठे लम्हे
वक़्त आकर मुझे
वापस थमा दे
जी चाहता है !
फिसलती गयी .
मुट्ठी से रेत मेरी
और मैं आगे बढ़ती गयी
वापस समेट कर उसे
एक घरोंदा बनाऊं
जी चाहता है !
सच्ची हंसी तो मैं
नीचे जमीं पर ही छोड़ आई
अब स्टेज पर खड़े होकर
पात्र की हंसी हँसते
खुद को पाया मैंने
एक बार फिर से
मेरा दिल हँसे
जी चाहता है !
एक बार फिर से
सारे बिखरे पड़े पत्तों को
पेड़ से जोड़ दूं
जी चाहता है !
चाहता तो बहुत कुछ है
ये नादान मन
पर होता तो बही है जो
वक़्त चाहता है !
( प्रिये पत्नी गार्गी की कलम से )
धन्यवाद
सुकोमल ख़्वाहिशों की बड़ी सुन्दर फ़ेहरिस्त पेश की है आपने
ReplyDeleteआभार
Behad sundar rachana!
ReplyDeleteपुरानी स्मृतियों को जोड़ने पर जो आकार खड़ा होता है, वही हमारा सच्चा जीवन है..
ReplyDeleteचाहता तो बहुत कुछ है
ReplyDeleteये नादान मन
पर होता तो बही है जो
वक़्त चाहता है !
सुंदर प्रस्तुति,,,,,
RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,
बहुत ही सुन्दर और आकर्षक कविता लिखी हे आपने,पर हर दिन एक नई कविता लिखें आप जी चाहता हे पर होता तो बही है जो वक़्त चाहता है !
ReplyDeleteजी तो वाकई बहुत कुछ चाहता है मगर होता वही है वो चाहता है फिर चाहे उसे वक्त का नाम दो या खुदा का बात एक ही है बस नज़रिया अलग-अलग है
ReplyDeletebahut khub....
ReplyDeleteThanks great bllog
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