Friday, November 25, 2011

पराये भी यहाँ अपने से लगते हैं .....>>> संजय कुमार

अरे तू तो हिन्दू है , अरे तू तो मुसलमान है , अरे वो तो छोटी जात का है , अरे वो तो बड़े पैसे वाला है ! इस तरह के शब्द हम अपने जीवन में कई बार सुन चुके हैं और शायद आज भी प्रतिदिन सुनते हैं ! दिल को बड़ी तकलीफ सी होती है इस तरह के शब्द सुनकर कि, क्यों एक इंसान को हम इंसानों ने इतने नाम दे दिए हैं ! हमने इंसान को पता नहीं कितने भागों में बाँट दिया है ! इस बात को लेकर हम सब कभी ना कभी जरूर दुखी हुए हैं ! आखिर हम क्या कर सकते हैं ये सब तो हम लोगों का ही ईजाद किया हुआ है ! यह तो तब तक चलेगा जब तक इंसान इस श्रृष्टि पर है ! यह सब देखकर मेरे मन में बस इक ख्याल आता है कि, क्या इस दुनिया में ऐसी भी कहीं कोई जगह है ? जहाँ पर इस तरह का माहौल देखने को ना मिले ! भाई-भतीजावाद ना हो , धर्म के नाम पर झगडा ना हो ! अचानक मेरे जेहन में एक ऐसी जगह का ख्याल आया , जहाँ पर ना तो कोई ये पूंछता है कि तुम कौन हो ? हिन्दू हो या मुसलमान , अमीर हो या गरीब , छोटा या बड़ा , इस जगह इन बातों का कोई महत्त्व नहीं है यहं सब एक ही भाषा बोलते हैं ! इस जगह आने वाले सभी लोगों के बीच का भाईचारा देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता है ! यहाँ सब एक दुसरे के भाई हैं कोई पराये नहीं ! ये जगह कोई और नहीं है " मधुशाला " मयखाना " BAR " है ! वैसे ये जगह मेरे ऑफिस के ठीक सामने है ! ( कभी कभी मैं भी वहां का माहौल देखने के लिए चला जाता हूँ ) हर शाम यहाँ बहुत बड़ा मेला सा लगता है ! यहाँ आने वाले कई लोग अपनी परेशानियों से बचने के लिए या अपने दुःख दर्द दूर करने के लिए या फिर क्षण भर की ख़ुशी पाने के लिए ! ( हर पीने वाले को यही लगता है ) सभी का मकसद एक सभी की मंजिल एक ( एक बोतल और चार यार ) कहते हैं कि इन्सान अगर एक बार इस जगह पहुँच जाये तो फिर वो यहाँ बार बार आना चाहता है ! कुछ लोग तो यहाँ आकर यहीं के होकर रह जाते हैं ! ( क्योंकि ये लत या तो जान लेती है या फिर हँसता - खेलता घर -परिवार तबाह और बर्बाद कर देती है ) यहाँ आने वाले लोग भले ही साल में एक बार भी मंदिर की दहलीज पर ना जाएँ किन्तु इस जगह तो वह नियमित, साप्ताहिक या मासिक अवश्य आएगा ही ! उसके पास यहाँ आने के कई बहाने भी होते हैं कोई घर में नया मेहमान आया हो ( बच्चे का जन्म हुआ हो ) या जन्मदिन हो ( आज का हर युवा अपने जन्मदिन पर यहाँ के दर्शन जरूर करता है जो नहीं जाते उनको मेरी शुभकामनाएं यहाँ कभी ना जाएँ ) , शादी की पार्टी हो या उसकी बर्बादी का मातम हो एक बार अवश्य आएगा ! यहाँ पर आने वाला हर व्यक्ति किसी ना किसी समस्या पर आपस में बात करते हुए जरूर मिल जायेगा ! यहाँ पर जो भाईचारा देखने को मिलता है उस भाईचारे का क्या कहना ! क्या छोटा क्या बड़ा सब एक साथ बैठकर पीते हैं मतलब जीते हैं ( हर पीने वाला यही सोचता है ) और भूल जाते हैं सब कुछ ! हिन्दुस्तान सहित पूरे विश्व में यही तो एक जगह है जहाँ हर दिन एक जैसे लोगों का मेला लगता है या यूँ कह सकते हैं सर्व धर्म , सम भाव , सर्व जातीय , एक अनूठा , इंसानों का मेला .................. मयखाना भी यहाँ आने वाले लोगों से कहता है कि , सारी दुनिया भर में पीकर बहको , पर यहाँ जरा संभलकर आना !

निवेदन ------- प्रिये साथियों ये तो मैंने बस यूँ ही लिख दिया ! किन्तु सच तो ये है की हमें इस जगह कभी भी नहीं जाना चाहिए , क्षण भर की मानसिक ख़ुशी के लिए अपने जीवन भर की खुशियाँ दांव पर लग जाती हैं ! ( मदिरापान स्वस्थ्य के लिए हमारे परिवार की खुशियों के लिए हानिकारक है )

धन्यवाद


Sunday, November 20, 2011

किस्मत का तो यही फ़साना है .....>>> संजय कुमार

हँसना है कभी रोना है
खोना है कभी पाना है
किस्मत का तो यही फ़साना है !
समझा है यही जाना है
हर लम्हा टल जाना है
किस्मत का तो यही फ़साना है !
कोई कहे चाँदी कोई कहे सोना
इन्सां है मिटटी का खिलौना
जीवन तो है इक सफ़र
कब खत्म हो क्या खबर
इक पल में यहाँ जीना है
दूजे पल मर जाना है
किस्मत का तो यही फ़साना है !
कभी है संवरना कभी है बिखरना
कभी तो है मिलना कभी है बिछड़ना
रिश्ते है क्यों अजनबी
दुस्वार है जिंदगी
उलझन के धागों को
जीवन भर सुलझाना है
किस्मत का तो यही फ़साना है !
आते हैं उजाले जाते हैं अँधेरे
आती हैं फिजायें जातीं हैं बहारें
किस्मत यही सब करेगी
होनी तो होके रहेगी
लिखा है जो होना है
बाकी तो सब बहाना है
किस्मत का तो यही फ़साना है !
देखो ना ये किस्मत की मजबूरी
दिल नहीं चाहे कहना जरूरी
कैसे कहें क्या हुआ
कहना भी है इक सजा
अश्कों के इन समंदर पे
लब्जों को डूब जाना है
किस्मत का तो यही फ़साना है ! किस्मत का तो यही फ़साना है !

(यह सभी पंक्तियाँ एक फिल्म के गीत से ली गयीं हैं )

धन्यवाद

Monday, November 14, 2011

" बाल दिवस " मनाकर कुछ नहीं होगा ! ....>>> संजय कुमार

हमारे देश में एक बर्ष में ना जाने कितने तरह के दिवस मनाये जाते हैं ! " Rose Day " Mother's Day " Father'Day " Birth-Day " Black-Day " Women's Day " Lover's Day " इत्यादि ! इन सभी महान दिवस के बीच में एक दिवस और आता है ! " Childern's Day " भारत के प्रथम प्रधानमंत्री " श्री जवाहरलाल नेहरुजी " के जन्मदिवस को हमारा देश " बाल दिवस " के रूप में मनाता है ! नेहरूजी (चाचाजी) को बच्चों से खासा लगाव था इसलिए उन्होंने अपने जन्मदिन को बच्चों के नाम कर दिया और तब से लेकर आज तक पूरा देश १४ नबंवर को नेहरूजी के साथ -साथ इस देश के भविष्य , देश के नौनिहाल बच्चों को " बाल दिवस " के रूप में याद कर लेता हैं ! पूरे एक साल में शायद यही एक दिन होता है जब हम बच्चों के बारे में सोचते हैं या उनसे सम्बंधित कोई दिवस मनाते हैं ! इस दिन हम सभी बच्चों के वर्तमान और भविष्य की अच्छी कल्पना करते हैं उनके बारे में अच्छा सोचते हैं ! आज इस देश में " बाल दिवस " का महत्त्व कितने लोग जानते हैं ! क्या स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे ? क्या शिक्षा देने वाले अध्यापक ? क्या देश का पढ़ा-लिखा युवा वर्ग या फिर मंत्री-संत्री , आला-अधिकारी ! सूची बहुत लम्बी है जो शायद जानते हों " बाल दिवस " का मतलब या फिर इनमें से भी ऐसे कई हैं जिन्हें आज के दिन की जानकारी ही नहीं है ! शायद ये बात सच हो सकती है ! हम बच्चों के बारे में कितना सोचते हैं ? उनका भविष्य क्या है ? हम कितना उनके लिए करते हैं , यह हमारे सामने है ! क्योंकि आज देश में बच्चों की हालत बहुत वद्तर है ! ये वो मासूम बच्चे हैं जो इस देश का भविष्य हैं ! आज उन्हें अपना वर्तमान तक नहीं मालूम कि , हम क्या हैं ? और आगे क्या होंगे ? आज कोई भी इन बच्चों के बारे में नहीं सोचता ! इसका बड़ा कारण ये भी है कि , बच्चों से देश के नेताओं का वोट बैंक नहीं बनता इसलिए नेताओं को बच्चों से कोई खास मतलब नहीं होता है ! ( मताधिकार १८ बर्ष की उम्र से ) आज दिन-प्रतिदिन बच्चों के साथ होती घटनाएं बच्चों के भविष्य को सिर्फ अन्धकार में ढ़केल रही है ! गरीब और बेसहारा बच्चे ही नहीं बल्कि सभ्य समाज में रहने वाले बच्चे भी अब इनसे अछूते नहीं हैं ! आज कौन है बच्चों की इस दयनीय हालत का जिम्मेदार ! क्या देश की सरकार जिम्मेदार हैं ? वह अधिकारी जो अपने फर्ज को ईमानदारी से नहीं निभाते , बच्चों के लिए बनाये गए कानून का सही पालन नहीं करते बल्कि छोड़ देते हैं बच्चों को उन्ही के हाल पर सिर्फ मरने के लिए ! या फिर जिम्मेदार हैं स्वयंसेवी संस्थाएं ! आज देश में बच्चों की स्थिती क्या है ? यह बात किसी से छुपी नहीं है ! बच्चे किसी भी परिवार, समाज एवं किसी भी देश की एक अहम् कड़ी होते हैं ! एक धरोहर जो राष्ट्रनिर्माण के सबसे बड़े आधार स्तम्भ कहलाते हैं ! किन्तु ये सब किताबी भाषाएँ हैं जिन्हें सिर्फ किताबों में ही पढ़ना अच्छा लगता है ! क्योंकि सच इतना कडवा है जितना की जहर भी नहीं है ! इस देश की विडम्बना कहें या दुर्भाग्य आज बहुत से अजन्मे मासूम तो माँ के गर्भ में आते ही जीवन-मृत्यु से लड़ते हैं ! और जन्म लेने के बाद इस देश का एक बहुत बड़ा वर्ग बच्चों का चौराहों , रेलबे -स्टेशन , गली -मोहल्ले भीख मांगता मिल जाएगा ! कुछ बच्चों का बचपन होटलों पर काम करते हुए , झूंठे बर्तन धोते हुए , काल कोठरियों में जीवन बिताते हुए कट जाता है , यूँ भी कह सकते हैं जीवन आज अँधेरे में कट रहा है ! बाल मजदूरी तो इस देश के हर कौने में होती है ! इस देश में बच्चों के साथ जो हो रहा है उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी , उनको खरीदने-बेचने का धंधा , उनसे भीख मंगवाने का धंधा , उनके शरीर को अपंग बनाने का काम , खतरनाक आतिशबाजी निर्माण में बच्चों का उपयोग , दिन -प्रतिदिन उनके साथ होता अमानवीय व्यवहार , तंत्र -मंत्र के चक्कर में बलि चढ़ते मासूम बच्चे , दिन-प्रतिदिन होता उनका यौन शोषण ( निठारी काण्ड ) अब तो हर छोटे बड़े शहर में निठारी काण्ड जैसी घटनाएँ हो रही है ! यह सब कुछ देश के भविष्य के साथ हो रहा है ! " बाल दिवस " पर भी होगा वो भी सरकार की नाक के नीचे और सरकार हमेशा की तरह अंधे बहरों की तरह कुछ नहीं कर पायेगी ! क्योंकि जब सरकार को ही किसी वर्ग की फ़िक्र नहीं तो इन मासूमों की पीड़ा को कौन सुनेगा ? दयनीय बच्चों की संख्या इस देश में लाखों -करोड़ों में है ! इस देश में आपको लाखों बच्चे कुपोषण का शिकार मिलेंगे , लाखों बेघर , दर-दर की ठोकर खाते हुए , आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर , निरक्षर और शोषित ,जिन्हें तो यह भी नहीं मालूम की बचपन होता क्या है ? बचपन किसे कहते हैं ? " बाल दिवस " का क्या मतलब है ? इस देश में " बाल दिवस " सिर्फ एक दिन नहीं बल्कि पूरे वर्ष मनाना चाहिए ! अगर हम इसमें सफल हुए तो यकीन कीजिये इस देश का भाग्य और भविष्य दोनों बहुत ही उज्जवल और सुनहरा होगा ! बच्चों को सिर्फ याद कर या नए नए कानून बनाकर "बाल दिवस " मनाकर कुछ नहीं होगा ! हम सबको मिलकर बच्चों पर होने बाले अत्याचार का पुरजोर विरोध करना होगा ! तब जाकर हम एक सभ्य समाज का निर्माण कर पायेंगे ............

धन्यवाद

Thursday, November 10, 2011

पुरुष हूँ , ना समझो पत्थर ! हम भी दिल रखते हैं ......>>> संजय कुमार

आप सभी साथियों को " गुरु नानक जयंती " की लख लख बधाईयां
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अरे तुम तो बड़े ही पत्थर दिल हो , लगता है तुम्हारे अन्दर तो संवेदना या दिल नाम की चीज बिलकुल भी नहीं है लगता है तुम्हें मुझसे या बच्चों से जरा भी प्रेम नहीं है ! मैंने तो आज तक कभी तुम्हारी आँख में एक आंसू तक नहीं देखा , इससे पता चलता है कि , तुम सारे मर्द एक जैसे होते हो सिर्फ पत्थर दिल तुम्हारी आँखों में तो प्यार मुझे कभी दिखता ही नहीं ! " पत्थर दिल कहीं के " ! इस तरह की बातें जब एक पुरुष को बार-बार बोलीं जाती हैं , तो सोचिये क्या गुजरती है उसके दिल पर ? कितने आंसू वह मन ही मन रोता है ! शायद ये बात कोई नहीं जानता, सिवाय उस पुरुष के जो कभी अपने पुरुष होने का मातम मनाता है या अपने पुरुष होने पर दुखी होता है ( एक पुरुष ही पुरुष के दर्द को समझ सकता है ) क्या सिर्फ कह देने भर से पुरुष को पत्थर दिल समझ लेना चाहिए ? देखा जाय तो इंसान भावनाओं का हाड-मांस का बना एक पुतला होता है वो चाहे नर हो या नारी ! बहुत सी बातें , बहुत सी अभिव्यक्तियाँ इंसान अपनी भावनाओं के द्वारा ही हमें बताता है ! आज हम यहाँ सिर्फ पुरुष भावनाओं की बात कर रहे हैं ! हमने अपने समाज में अक्सर देखा है कि , जिस तरह लड़कियों का ठहाका लगाकर हँसना आज भी हर जगह पसंद नहीं किया जाता ! शायद ये बात हमारे संस्कारों के खिलाफ है इसलिए ऐसा समझा जाता हो , किन्तु अब ज़माना बदल गया है ! क्योंकि आज की नारी अब वो नारी नहीं रही जो परदों की चारदीवारी में कैद हो , जिसके किसी भी कार्य पर अंकुश लगाया जा सके ! ठीक उसी प्रकार किसी भी पुरुष का रोना आज हमारे समाज में, हमारे बीच में कमजोरी की निशानी माना जाता है ! क्योंकि आंसू बहाना पुरुषों का काम नहीं है ! ( मर्द होकर रोते हो ) क्योंकि हमारा देश पुरुष प्रधान देश है , यहाँ पुरुष ही सर्वस्व है , क्योंकि वो हर जिम्मेदारी को आगे बढ़कर अपने ऊपर लेता है , चाहे वो घर हो या उसका कर्म क्षेत्र हो ! एक पुरुष जिम्मेदारियों का वहन करते - करते तन और मन से मजबूत हो जाता है , इसलिए पुरुषों का रोना उनकी कमजोरी को दर्शाता है ! क्या ये सही है ? क्या पुरुषों का रोना सिर्फ कमजोरी की निशानी है ? जी नहीं पुरुष कमजोर नहीं होता ! पुरुष एक हाड -मांस का बना इंसान है और उसके अन्दर भी वही संवेदनाएं होती हैं जो एक नारी के अन्दर होती हैं ! एक पुरुष अपने जीवन में कितनी चीजों से लड़ता है इस बात को हम सब लोग बहुत अच्छे से जानते हैं ! किन्तु पुरुष हर बात पर नहीं रोता , उसके अंदर सब्र का पैमाना बहुत बड़ा होता है , वो महिलाओं की तरह व्यवहार नहीं करता ! हमारे देश में अधिकांश महिलाओं का समय सिर्फ घर की चार दिवारी में चौका बर्तन और बच्चों के पालन-पोषण में ही व्यतीत होता हैं , शायद इसलिए उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता कि, बाहर काम करने वाले पुरुष किन - किन समस्यायों का सामना करते हैं ! पुरुष हमेशा दो पाटों के बीच में पिसता रहता है ! आज हमारे बीच का वातावरण इतना अशुद्ध हो गया है जिसमे सिर्फ परेशानिया , तनाव , काम का प्रेशर बहुत बड़ गया है ! आज पुरुष के पास कितनी समस्याएँ है यह भी हमें जानना होगा ! एक परिवार में एक शादीशुदा पुरुष की क्या स्थिती हो सकती है ? ध्यान में रखकर अंदाजा लगायी जा सकती है ! माता -पिता को लगता है कि, शादी के बाद उनका बेटा उनसे दूर हो गया है , बहन को लगता है कि , शायद अब हमे भाई का प्यार नहीं मिलेगा ! वहीँ पत्नी चाहती है कि, उसका पति सिर्फ उसका होकर रहे ! ( आजकल का माहौल लगभग ९०% घरों में है , एकल परिवार प्रणाली ) इस तरह का माहौल हमने अपने आस पास जरूर देखा होगा ! इस स्थिति में किसी भी पुरुष की क्या दशा होती होगी इसका अंदाजा सिर्फ एक पुरुष ही लगा सकता है ! मैं यहाँ सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि , अगर ऐसी स्थिती में पुरुष नहीं रोता या उसकी आँख में आंसू नहीं आते तो इसका यह अंदाजा बिलकुल भी नहीं लगाना चाहिए कि वो इन्सान नहीं पत्थर है ! वह भी महिलाओं की तरह ही एक इंसान है ! अगर इंसान नहीं होता तो क्या एक पिता का अपनी बेटी की विदाई पर रोना उसकी कमजोरी की निशानी माना जायेगा ! नहीं यह वो अभिव्यक्तियाँ हैं जो कभी भी और किसी भी तरह एक पुरुष अपने जीवन में व्यक्त करता है ! अगर पुरुष ऐसा नहीं करेगा तो उसकी सभी संवेदनाएं एक दिन धीरे-धीरे समाप्त हो जाएँगी ! अपने बुरे हालातों से लड़ते-लड़ते इंसान एक दिन टूटकर बिखर जाता है और उसकी आँखों में होते हैं सिर्फ आंसू !

इसलिए मैं कहता हूँ कि , " मैं भी एक इन्सान हूँ " एक पुरुष हूँ कोई पत्थर नहीं "

धन्यवाद

Saturday, November 5, 2011

जी हाँ ... मैं जिन्दा हूँ ...... >>> संजय कुमार

जी हाँ मैं सच कह रहा हूँ ! मैं जिन्दा हूँ और इसका प्रमाण ये है कि मैं आप लोगों के लिए ये ब्लॉग लिख रहा हूँ और जब तक साँस चलेगी पूरी कोशिश करूंगा की मैं कुछ अच्छा लिखता रहूँ ! मेरे जिन्दा होने के और भी कई प्रमाण हैं जो ये साबित करेंगे कि " मैं जिन्दा हूँ " क्योंकि इन्ही से ये प्रमाणित होगा ! जैसे मेरे पास राशन कार्ड है , पासपोर्ट है , ड्रायविंग लायसेंस है , वोटर कार्ड है , पेन कार्ड है , मेरे पास " आधार " है ( आम आदमी का अधिकार ) ये सभी पहचान पत्र सबूत हैं , जो मेरे जिन्दा होने का प्रमाण देते हैं ! यही सबूत मुझे इंसानों की श्रेणी में भी लाते हैं ! ये सभी मेरे भारतीय होने का भी प्रमाण है ! जिस किसी के पास पहचान पत्र नहीं है तो उसे हम भारतीय कैसे मानें ! क्योंकि आज पहचान सिद्ध होने पर ही हमें भारतीय समझा जायेगा ! यदि इस प्रकार का एक भी पहचान पत्र, या अपने होने का एक भी प्रमाण पत्र अगर किसी के पास ना हो तो क्या हम उस नागरिक को मृत समझेंगे या फिर जिन्दा ? ये बात भले ही लिखने और पढ़ने में अजीब लग रही हो किन्तु ये सत्य है ! आज हमारे देश में जिस किसी के पास एक भी प्रकार का कोई पहचान पत्र नहीं है तो उस इंसान को लगभग मृत माना जाता है या मृत मान लेना चाहिए ! बैंक में खाता खोलना हो तो पहचान चाहिए , राशन कार्ड बनवाना हो तो पहचान चाहिए , किसी भी तरह का पहचान पत्र बनवाना हो तो हमें अपने होने का प्रमाण देना अनिवार्य होता है ! यदि आपके पास कोई पहचान पत्र है तो ठीक , वर्ना आप अपने जिन्दा होने के प्रमाण ढूँढ़ते रहिये ! यदि कोई अधिकारी आपके जिन्दा होने का सबूत देता है तो आप अपने आप को जिन्दा मान सकते हैं ! इस देश में ऐसे लाखों लोग हैं जिनका कहीं भी कोई जिक्र नहीं है ! ना तो ये लोग वोटर लिस्ट में हैं, ना ही राशन कार्ड है , और ना ही इनका किसी भी प्रकार का कोई पहचान पत्र है ! देश में ऐसे लाखों मजदूर हैं , लाखों भिखारी हैं , बंधुआ मजदूर हैं जिनके पास ना तो सिर पर छत है और ना ही तन पर कपड़ा, फिर इनकी पहचान कौन देगा ? क्या पहचान है ऐसे लोगों की ? या सिर्फ जनसँख्या की गिनती हैं ! हमारे यहाँ जब एक आम आदमी को अपनी पहचान देने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है तो फिर आप सोच सकते हैं उस व्यक्ति को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता होगा , अपने जिन्दा होने का प्रमाण देने में जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है ! ये हमारे देश का दुर्भाग्य ही है जहाँ गरीबों को मिलने वाली आर्थिक योजनाओं का लाभ देश के ऊंचे पदों पर बैठे पदाधिकारी उठा रहे हैं ! और बेचारा गरीब तो बस मरने के लिए पैदा हुआ है ! कई बार तो ये भी देखा और सुना गया है कि एक मृत आदमी को कागजों और फाइलों में जिन्दा कर उसका लाभ उसे मिलने वाली राशी और राशन का फायदा कई लोग वर्षों तक उठाते हैं ! यहाँ तक तो ठीक है , यह भी देखा गया है कि एक जिन्दा आदमी को फाइलों में मृत बताकर योजनाओं का लाभ कोई और बर्षों तक उठाता रहता है ! और बेचारा जिन्दा आदमी चिल्लाते-चिल्लाते एक दिन मर जाता है कि " मैं जिन्दा हूँ "
अक्सर हमें भी कई बार अपने जिन्दा होने के सबूत देने पड़ते हैं ! हम जीते-जागते इंसान , सांस लेते इंसान , रगों में दौड़ता हुआ खून इस बात की गवाही देता है कि , हम जिन्दा हैं ........... क्या वाकई में हम जिन्दा है ? या प्रमाण देने पर ही हमें जिन्दा समझा जायेगा ! ( सोच कर अवश्य बताएं )


धन्यवाद

Tuesday, November 1, 2011

छोटी सी उम्र पर है , जिम्मेदारी भारी .......>>> संजय कुमार

कहा जाता है कि , एक जिम्मेदार इंसान अपने घर-परिवार की देखभाल , भरण-पोषण की जिम्मेदारी , अपना उत्तरदायित्व बहुत अच्छे से निभाता है ! किसी भी इंसान के ऊपर जिम्मेदारी का भार एक निश्चित उम्र के बाद ही आता है या फिर एक उम्र होती है जिसमे इंसान को हम जिम्मेदार कह सकते हैं ! ( फिर भले ही कुछ लोग शायद उम्र भर जिम्मेदार नहीं बन पाते ) मैं बात कर रहा हूँ उन छोटे छोटे बच्चों की जो खेलने कून्दने और पढ़ने-लिखने की उम्र में अपने परिवार की रोजी-रोटी की जिम्मेदारी का भार आज बड़ी ही कुशलता के साथ उठा रहे हैं ! छोटे-बड़े होटलों , ढावों, भोजनालयों पर काम करने वाले बच्चे , बंधुआ मजदूर की तरह घरों में नौकरी करने वाले बच्चे , किराना -परचून की दुकान पर काम करने वाले बच्चे , भगवान् के नाम पर किसी निश्चित दिन ( मंगलवार -शनिवार ) भिक्षा मागने वाले बच्चे , बस , ट्रेन और फुटपाथ पर भीख मांगने वाले ये बच्चे , सब कुछ अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए छोटी सी उम्र में कठिन परिश्रम करते हैं ! इन बच्चों के सिर पर भी कहीं ना कहीं एक जिम्मेदारी होती है जिसे निभाने के लिए वो कुछ भी करने को हमेशा तैयार रहते हैं ! यहाँ पर हम यदि जिम्मेदारी को मजबूरी या मजबूरी को जिम्मेदारी कहें तो गलत नहीं होगा ( ऐसा नजरिया कुछ लोगों का हो सकता है ) ऐसे बच्चों का जीवन बड़ा ही कष्टमय होता है ! ऐसे बच्चों से खुशियाँ हमेशा हजारों कोस दूर होती हैं ! जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर इनका बचपन कब निकल जाता है और ये कब बड़े हो जाते हैं इस बात का अहसास शायद ही इन बच्चों को कभी हो पाता हो क्योंकि ऐसे बच्चों का बचपन जब कष्ट में गुजरा हुआ होता है तो ये उसे याद करना भी नहीं चाहते ! जिम्मेदारियों के बोझ तले कुछ बच्चे शिक्षा से भी महरूम रह जाते हैं ! कुछ पढ़ना - लिखना चाहते भी हैं तो उनकी मजबूरियां उन्हें पीछे धकेल देती हैं ! कुछ बच्चों पर माँ-बाप की जिम्मेदारी होती है तो कुछ भाई-बहनों की जिम्मेदारी को अपने कन्धों पर लेते हैं ! और इस तरह के बच्चे बड़ी खूबी के साथ अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह भी करते हैं ! और जीवन पर्यंत तक इन जिम्मेदारियों से ना कभी भागते हैं और ना ही पीछे हटते हैं ! जब ये बच्चे अपने परिवार के बारे में सोचते हैं और उनकी खुशियों के लिए दिन रात मेहनत करते हैं , तो इन्हें अपने बारे में सोचने का कभी समय ही नहीं मिलता ! ऐसे बच्चों की संख्या आज देश में बहुत है ! आज जिस दौर में हम लोग अपना जीवनयापन कर रहे हैं उस दौर में इंसान की आवश्यकताएं जरूरत से ज्यादा और और उन्हें पूरा करने के साधन बहुत कम ! कुछ आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए दिन-रात मेहनत कर रहा है तो कुछ जरूरत से ज्यादा ! आज देखा गया है कि , ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले परिवार अपने बच्चों को शहरी वातावरण में भेज देते हैं कि कहीं कुछ सीख ले जो उसे उसके भविष्य में काम आये ! ऐसी स्थति में देखा गया है बच्चे किसी शराबखाने में काम करते मिल जायेंगे या किसी मंत्री या व्यवसायी की कोठियों पर झाड़ू-पौंछे का काम करते मिल जायेंगे ! सही दिशा और मार्ग-दर्शन यदि मिल गया तो ठीक वर्ना जीवन किस ओर जायेगा नहीं मालूम ! आज छोटी सी उम्र पर जिम्मेदारी बड़ी भारी है ! आज जिम्मेदारियों का बोझ हमारे देश के नौनिहाल उठा रहे हैं ! आज जिम्मेदारियों के बोझ तले बच्चों का वर्तमान निकल रहा है ! क्या भविष्य है ऐसे बच्चों का ?

धन्यवाद