देखा अजीव एक द्रष्य
कुचले पड़े मानव के दिल ,
टुकड़े - टुकड़े पड़ी , कराहती आत्मा ,
स्वपन आश्चर्य तले दवे थे,
खीझ में सने थे ,
वह दिल नासूर बन चुका था ,
क्योंकि उसको अपनों ने कुचला था ,
वह उनकी प्रतिष्ठा का रास्ता था ,
जिसको पैरों से रौंधता ' वह अपना ' चला था
दुःख नहीं हुआ जब दुश्मनों ने दुश्मनों की ,
अवाक ताकते रह गए हम
जब अपनों ने स्वार्थ में रंगी
चाल चली ...........
( प्रिये पत्नि गार्गी की कलम से )
धन्यवाद
स्वार्थी दुनिया स्वार्थी लोग
ReplyDeleteभला अपने कैसे निस्वार्थ रहे सकते हैं...
वाह भाभी जी भी कविता लिखने लगी हैं...
बढिया है..
हमारी तरफ से शुभकामनाएं...
मेरी नज़र से........
स्वपन आश्चर्य तले दवे थे,
ReplyDeleteखीझ में सने थे ,
वह दिल नासूर बन चुका था ,
क्योंकि उसको अपनों ने कुचला था ,
संवेदना से भरी बेहतरीन रचना....
कष्ट अपने ही देते हैं ....
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें !
कष्ट औरों से नहीं, अपनों से ही होता है।
ReplyDeleteयह अपनों द्वारा दिया गया कष्ट ...किससे कहें .....!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना कष्ट अपने ही देते हैं
ReplyDeleteमेरा शौक
http://www.vpsrajput.in
ek katu satya,jinse sb nazren churana chahte hain,aapne bayaan kr diya
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