अब लगता है वो स्वर्ग था
शायद वह सुख अब
नामुमकिन हो गया
ना अब बैलों के गले में बंधी
घंटियाँ सुनाई देती हैं
ना बैलगाड़ियों कि चरमराहट
ना सुबह
माँ की चकिया की आवाज
ना वो शाम को
गाय बकरियों की आवाज
ना वो टिकटिकी की आवाज
A C के तंग रूम में
वो बात कहाँ
जो सितारों से भरे
आसमान के नीचे
खुले आँगन या
छत पर हुआ करती थी
उस समय खौफ और फ़िक्र से
घिरे ना थे हम
बेख़ौफ़ सोते थे हम
बेफिक्र उठते थे
एक कटोरे गेंहूं से
मनचाही चीज
खरीदा करते थे
तब हमको पैसों का
मोल पता ना था
अब मिटटी से बचते हैं
तब सुगंधित मिटटी में
खेला करते थे
वो खेत , वो नहर
घर के सामने
वो पीपल , बरगद का पेड़
सब धीरे धीरे मिटते गए
और अब सिर्फ
मेरी यादों में गए !
जिसे गाँव की तरक्की कहते हैं
वो मेरे गाँव का खो जाना है
धन्यवाद
शायद वह सुख अब
नामुमकिन हो गया
ना अब बैलों के गले में बंधी
घंटियाँ सुनाई देती हैं
ना बैलगाड़ियों कि चरमराहट
ना सुबह
माँ की चकिया की आवाज
ना वो शाम को
गाय बकरियों की आवाज
ना वो टिकटिकी की आवाज
A C के तंग रूम में
वो बात कहाँ
जो सितारों से भरे
आसमान के नीचे
खुले आँगन या
छत पर हुआ करती थी
उस समय खौफ और फ़िक्र से
घिरे ना थे हम
बेख़ौफ़ सोते थे हम
बेफिक्र उठते थे
एक कटोरे गेंहूं से
मनचाही चीज
खरीदा करते थे
तब हमको पैसों का
मोल पता ना था
अब मिटटी से बचते हैं
तब सुगंधित मिटटी में
खेला करते थे
वो खेत , वो नहर
घर के सामने
वो पीपल , बरगद का पेड़
सब धीरे धीरे मिटते गए
और अब सिर्फ
मेरी यादों में गए !
जिसे गाँव की तरक्की कहते हैं
वो मेरे गाँव का खो जाना है
धन्यवाद
बेफिक्र उठते थे
ReplyDeleteएक कटोरे गेंहूं से
मनचाही चीज
खरीदा करते थे
..............वाह...बहुत ही अच्छी और भावपूर्ण रचना !!