Wednesday, February 27, 2013

भटकाव ...........>>> गार्गी की कलम से

प्रकृति की गोद में अठखेलियाँ करना
हमारी हर इक ख़ुशी पर
वो भी मुस्कुरा जाये
हमारा हर इक गम-दर्द ,
उसका खुदका हो जैसे ,
उस पर हक यूँ हो
जैसे खुद पर हुआ करता है
ये सब देकर भी
कौन होगा जो खुद
ये सब पाना ना चाहेगा
इन्तजार की हद तक ............
इसके बाद
दो आत्मा एक जिस्म
और फिर
उसके भी बाद
दो आत्मा दो जिस्म
और फिर
उसके भी बाद
मर चुकी होती है
रिश्तों की आत्मा
रह जाते हैं सिर्फ
" जिस्म "
जो रिश्तों का मोहताज रहना नहीं चाहता
सिर्फ
कहीं से भी
किसी से भी
सहानुभूति चाहता है
कहने का अर्थ
सिर्फ इतना है कि
भटके हुए से एक होने की
उम्मीद लगाना
यानि
खुद भटकना है !

( प्रिये पत्नी गार्गी की कलम से  )

धन्यवाद

13 comments:

  1. आपकी पोस्ट 27 - 02- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें ।

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  2. भावपूर्ण कविता के लिए साधुवाद.

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  3. बहुत ही भावपूर्ण कविता,आभार...

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  4. SUNDAR "JIVAN KI AAPADHAPI TUM KAHA GYE MAI KAHA GAYA ,TUM PAR SAMANDAR KE US HO,MAI SHAHRA KE US PAR GAYA..."Aziz

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  5. हाँ ,बिलकुल यही होता है !

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  6. बड़ी ही प्रभावी प्रस्तुति..

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  7. सार्थक प्रस्तुति | बधाई |


    यहाँ भी पधारें और लेखन पसंद आने पर अनुसरण करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  8. आज की ब्लॉग बुलेटिन ये कि मैं झूठ बोल्यां मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  9. कितनी दुखद स्थिति होती है वो... जब रिश्तों के मरने का एहसास होता है...! जीवन की सबसे अनमोल पूँजी 'रिश्ते' ही होते हैं.... जब उन्हीं की क़द्र ना करी.. तो फिर जीवन में रह क्या जाएगा.. :(
    ~सादर!!

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  10. गार्गी को बहुत बहुत शुभकामनायें और इस सुंदर लेखन के लिये बधाई.

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