Tuesday, December 18, 2012

खत्म होते घर - आँगन ..........>>> संजय कुमार

घर - आँगन , घर -परिवार , रिश्ते-नाते और हमारे संस्कार बदलते समय के साथ  धीरे - धीरे बदलते जा रहे हैं ! अब हमारे घर- परिवार में वो बात नहीं रही जो पहले कभी हुआ करती थी ! पहले हम घर-परिवार से जाने जाते थे और अब ....?  कहा जाता  हैं एकता में जो शक्ति है वो किसी अकेले इन्सान में नहीं होती और ये  बात बिलकुल सही है क्योंकि  हमने अपनी आँखों से एकता , एकजुटता की शक्ति को देखा है ! फिर चाहे वह युवा संगठन हो या फिर " अन्ना " का समर्थन करने वालों का संगठन, हम सब इसकी ताक़त को जानते हैं और हमारे देश की सरकार भी एकता की ताकत से भली-भांति परिचित है ! किन्तु मैं यहाँ बात कर रहा हूँ, अपने पारिवारिक संगठन की, या संयुक्त परिवार की जो अब नाम के बचे हैं ! एक समय था जब हम किसी के घर जाते थे , तो वहां पर हमारी मुलाकात एक ही परिवार के कई  सदस्यों से होती थी ! घर में मौजूद घर का सबसे मजबूत स्तम्भ जिस पर पूरा घर-परिवार टिका हुआ होता है  और वो हैं उस घर के बुजुर्ग दादाजी -दादीजी , अगर ये नहीं होते तो ऐसा लगता है जैसे हमें सही राह दिखाने वाला कोई  नहीं है ! दूसरा मजबूत स्तम्भ माता -पिता जो जीवनभर अपने बच्चों के साथ रहना चाहते हैं ,किन्तु अब ऐसा समय आ गया है कि , आज के बच्चे ही अपने माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहते ! माता -पिता उन्हें किसी बंदिश से कम नहीं लगते ! आज घर-घर में , हर घर में चार बर्तन खनकने की आवाजें तेज होती जा रही हैं ! हर इंसान के साथ माता-पिता का साथ  लम्बे समय तक होना अत्यंत जरुरी होता है ! जिन लोगों के लिए माता -पिता बोझ होते हैं उन्हें ये मालूम होना चाहिए  जिनके सिर पर माता-पिता का साया नहीं रहता वो बच्चे या तो बहुत अच्छे बनते हैं या फिर  ? .. वहीँ अन्य रिश्तों में  चाचा-चाची,भैया-भाभी ऐसे  कई रिश्ते एक ही परिवार में देखने को मिलते थे जिनसे कोई भी घर एक परिवार बनता है ! ऐसे परिवार में जाने से ,उनसे मुलाकात करके मन को एक अनूठी ख़ुशी मिलती है  और ऐसे परिवार से मिलता है घर का प्यार , अपनापन, मान-सम्मान , और सच्चे रिश्तों की महक ! किन्तु  जैसे जैसे समय तेजी से गुजर रहा है और जब से  इन्सान अपने आप से मतलब रखने लगा है, सिर्फ अपने बारे में सोचने लगा है , परिवार के अन्य सदस्यों की  परवाह नहीं उनके लिए मान- सम्मान नहीं तो ऐसी स्थिति में  शुरू हो जाता है  विघटन और वदलाव उस परिवार की एकता में  ! आज की भागमभाग में अगर इंसान के पास कुछ नहीं है तो वो है सब्र और संयम , जो किसी भी इंसान की सबसे बड़ी ताक़त होती है ! किन्तु आज हम देख रहे हैं कि , इंसान आज कितनी जल्दी अपना सब्र खो देता  है , जिस कारण से आये दिन घर परिवार में लड़ाई झगडे की स्थिति बन रही है और यही स्थिति आयेदिन होने वाले  झगड़ों के कारण इंसान अपनों से अपने परिवार से दूर होता जा रहा है या मजबूरी बश अपने ही घर परिवार के बीच दीवारें खींच रहा है ! जब किसी परिवार के बीच दीवारें खींचती है तो क्या स्थिति होती है  उस घर परिवार की ?  एक बड़ा सा घर बदल जाता है  चिड़ियों के छोटे-छोटे घोंसलों के जैसा , जिसे हम घर नहीं  पत्थर से निर्मित एक मकान कहते हैं ! आज इस  विघटन और वदलाव से हमारा कितना अहित हो रहा है  शायद हम  यह सब जानते है फिर भी   जानकार अनजान हैं ! हमें परिवारों में हुए विघटन और वदलाव का असर अब देखने को मिल रहा है !  अपने बच्चों में क्षीण होते संस्कार के रूप में , माता -पिता के खोते हुए सम्मान के रूप में , वदलती रिश्तों की परिभाषा और उनकी महक के रूप में , खत्म होती अपनों के प्रति अपनत्व की भावना के रूप में , पथभ्रष्ट होती युवा पीढ़ी के रूप में , और ये सब कुछ हुआ हमारे घर - परिवार के बंटने से उनके बीच मनमुटाव की दीवार से ! जब से इंसान ने अकेले रहना शुरू किया  है , सिर्फ अपने बारे में सोचा है  तब से वदल गयी हर  घर - परिवार की  कहानी ! आज घर - परिवार की बात करना बड़ी बेमानी सी लगती है ...... और ऐसा लगता है जैसे हमें अपना जीवन सिर्फ अपने लिए जीना है ...... किन्तु जब हम अपने भरे - पूरे परिवार के साथ बिताये लम्हों को याद करते हैं तो मन बड़ा ही दुखी होता है और महसूस होता है कि , जो मजा अपनों के साथ है वो अकेले में नहीं ....... किन्तु आज ये संभव भी तो नहीं है क्योंकि माता-पिता अपना घर नहीं छोड़ना चाहते और बच्चों को अपना भविष्य बनाने के लिए घर से बाहर निकलना ही होता है ....... क्या उचित है क्या अनुचित , क्या सही है क्या गलत ?  इस बात का जबाब शायद ही किसी के पास हो , सभी के पास अपने - अपने तर्क हैं जिन पर बहस करना बेकार है ! फिर भी एक कटु सत्य हमारे सामने हैं , और वो ये है की ....... हमारे घर-आँगन खत्म हो गए या फिर आज बदल रहे हैं  छोटी छोटी कोठरियों में 

गुजारिश  :-- कोशिश करें ना खत्म करें अपने घर - आँगन , ना निर्मित होने दें अपने घर - आँगन कोठरियों में  

धन्यवाद 

11 comments:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (19-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | अवश्य पधारें |
    सूचनार्थ |

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  2. बहुत सुन्दर रचना ,आभार :

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  3. बहुत ही खुबसूरत बात कही आपने और बहुत ही सटीक और सरल शब्दों में बयां किया है, बिलकुल सही फ़रमाया है और सच ये भी है की आप सिवाय बदलते वक़्त के और किसी को कसूर वार नहीं ठहरा सकते, मैंने भी संयुक्त परिवार को आनंद अपने बचपन में उठाया है और वो मीठापन और पारिवारिक प्रेम आज के ज़िन्दगी भी कभी महसूस नहीं हुआ , यही वजह है दूर रहने के बावजूद भागते-भागते हमेशा अपने गांव हर साल पहुचता हूँ , अब भी वहां कुछ बांकी जिसका रस अनूठा है, संजय जी आपके विषय से मिलती एक कविता मैंने काफी पहले लिखी थी "शेष समय की सीमा पर घबराता पछताता ". जो बिखरते परिवार के दर्द को बयां करता है और माता-पिता के अहसास को जताता है, आप मेरे ब्लॉग पर इसे पढ़ सकते हैं।बहुत अच्छे लेख आज के बिखरे परिवार पर संजय जी।

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    1. Naveen ji, samay ke sath sath kahin naa kahin hum bhi doshi hain, fir bhi koshish jaari rahna chahiye

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  4. टूटती जा रही हैं स्वस्थ्य परम्परायें।

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  5. बहुत ही सार्थक आलेख,
    लेकिन संयुक्त परिवार की परम्पराये धीरे धीरे टूटती जारही है,,,,

    संजय जी,आजकल मेरे पोस्ट पर आप नही आरहे है,,,क्या बात है,,,

    recent post: वजूद,

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  6. केरियर नामक बीमारी ने परिवारों को तबाह किया है। वर्तमान शिक्षा के कारण माता-पिता का सम्‍मान खत्‍म हुआ है। परिवार पर मां के स्‍थान पर पत्‍नी का शासन हो गया है। इसकारण परिवार तो समाप्‍त होने ही हैं।

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