आधार है वो हम सब का
पर खुद निराधार है
सिर्फ इसलिये कि,
हम समझौता नहीं कर सकते थोडा सा ,
अपनी सोच
और वक़्त की मांग के बीच !
वक़्त नहीं अब वो
जब हम
बच्चों को बुढ़ापे की
पूँजी कहा करते थे !
यहाँ मैंने कही है बात
तीन पीढ़ियों की ,
दुर्गत तो है बीच के दर्जे की
पर यह दुर्गत
खत्म नहीं होगी
तब तक
जब तक
प्रथम दर्जे यानी
पुरानी सोच ,
वदलेगी नहीं ..
परिवार की प्रतिष्ठा
मान , मर्यादा ,परम्परा ,
क्या चार दीवारी के अन्दर ही रहकर
निभाई जा सकती है ?
क्या औरत की पर्दाप्रथा ही है
मान, मर्यादा का स्तम्भ ?
क्या ये प्रथा
जीवन , देश और विश्व की
और अधिक प्रगति में वाधा नहीं है ?
और वैसे भी जो परम्परा ,
वदलती नहीं वक़्त के साथ
वो सड़ने लगती है !
दुर्गत तो सबसे बड़ी उनकी है
जो फसे हुए हैं दोहरी मानसिकता वालों के बीच
यानी जीवन की लगाम भी
उन्हीं के हांथों में है
वो जो किसी के लिए
वक़्त के साथ वदले हैं
और किसी के लिए नहीं !
क्या इन्हें परम्परावादी कहेंगे ?
प्रिय पत्नि " गार्गी " की कलम से
धन्यवाद
संजय जी
ReplyDeleteउन्हीं के हांथों में है
वो जो किसी के लिए
वक़्त के साथ वदले हैं
और किसी के लिए नहीं !
क्या इन्हें परम्परावादी कहेंगे ?
......बहुत ही सही लिखा आपने.....बहुत सुन्दर प्रेरणा देती हुई रचना|
जब हम
ReplyDeleteबच्चों को बुढ़ापे की
पूँजी कहा करते थे !
यहाँ मैंने कही है बात
.....जब स्वार्थ की बात आती है तो सब भूल जाते हैं।
सुन्दर प्रभावशाली सन्देश|बहुत अच्छी सोच के साथ लिखी गई उत्तम रचना। धन्यवाद|
......बढ़िया लेखन पर भाभी जी को बधाई
Badee sashakt rachana hai!
ReplyDeletebahut khub.
ReplyDeleteजो फसे हुए हैं दोहरी मानसिकता वालों के बीच
ReplyDeleteयानी जीवन की लगाम भी
उन्हीं के हांथों में है
वो जो किसी के लिए
वक़्त के साथ वदले हैं
और किसी के लिए नहीं !
जायज़ प्रश्न है ... बहुत अच्छी अभिव्यक्ति
परम्परा तो संवाद की है, संवाद समाप्त, परम्परा समाप्त।
ReplyDeleteगज़ब की सोच का परिचायक है ये कविता………………बदलना ही पडेगा अब सोच को, परम्पराओ को।
ReplyDeleteकविता दिन-बा-दिन और अच्छी होती जा रही हैं.. बहुत बढ़िया.. गार्गी को स्नेह और आप दोनों को शुभकामनाएं.
ReplyDeleteगार्गी भाभी जी की बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना! शुभकामनायें !
ReplyDeleteयानी जीवन की लगाम भी
ReplyDeleteउन्हीं के हांथों में है
वो जो किसी के लिए
वक़्त के साथ वदले हैं
और किसी के लिए नहीं !
क्या इन्हें परम्परावादी कहेंगे ?
कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें गार्गी जी.
परंपरा से पता चलता है कि ऐसे लोग भी पहले से ही चले आ रहे हैं।
ReplyDeleteआपका शुक्रिया... जो आप प्रिय गार्गी की उम्दा सोच को हमसे साझा करते हैं।..
ReplyDeleteक्रन्तिकारी सोच की सशक्त रचना ....
ReplyDeleteलेखनी अबाध चलती रहे.....
Bahut hi badiya likha hai.
ReplyDeletebahut hi shandaar!
ReplyDeletevivj200.blogspot.com