Thursday, April 14, 2011

क्या इन्हें परम्परावादी कहेंगे ? .......>>> संजय कुमार

आधार है वो हम सब का 
पर खुद निराधार है 
सिर्फ इसलिये कि,
हम समझौता नहीं कर सकते थोडा सा ,
अपनी सोच 
और वक़्त की मांग के बीच !
वक़्त नहीं अब वो 
जब हम
बच्चों को बुढ़ापे की 
पूँजी कहा करते थे !
यहाँ मैंने कही है बात 
तीन पीढ़ियों की ,
दुर्गत तो है बीच के दर्जे की 
पर यह दुर्गत 
खत्म नहीं होगी 
तब तक
जब तक 
प्रथम दर्जे यानी 
पुरानी सोच ,
वदलेगी नहीं ..
परिवार की प्रतिष्ठा 
मान , मर्यादा ,परम्परा ,
क्या चार दीवारी के अन्दर ही रहकर 
निभाई जा सकती है ?
क्या औरत की पर्दाप्रथा  ही है 
मान, मर्यादा का स्तम्भ ?
क्या ये प्रथा  
जीवन , देश और विश्व की 
और अधिक प्रगति में वाधा नहीं है ?
और वैसे भी जो परम्परा ,
वदलती नहीं वक़्त के साथ 
वो सड़ने लगती है ! 
दुर्गत तो सबसे बड़ी उनकी है 
जो फसे हुए हैं दोहरी मानसिकता वालों के बीच 
यानी जीवन की लगाम भी 
उन्हीं के हांथों में है 
वो जो किसी के लिए 
वक़्त के साथ वदले हैं 
और किसी के लिए नहीं !
क्या इन्हें परम्परावादी कहेंगे ?


प्रिय पत्नि " गार्गी " की कलम से 

धन्यवाद 

15 comments:

  1. संजय जी
    उन्हीं के हांथों में है
    वो जो किसी के लिए
    वक़्त के साथ वदले हैं
    और किसी के लिए नहीं !
    क्या इन्हें परम्परावादी कहेंगे ?
    ......बहुत ही सही लिखा आपने.....बहुत सुन्दर प्रेरणा देती हुई रचना|

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  2. जब हम
    बच्चों को बुढ़ापे की
    पूँजी कहा करते थे !
    यहाँ मैंने कही है बात
    .....जब स्वार्थ की बात आती है तो सब भूल जाते हैं।
    सुन्दर प्रभावशाली सन्देश|बहुत अच्छी सोच के साथ लिखी गई उत्तम रचना। धन्यवाद|
    ......बढ़िया लेखन पर भाभी जी को बधाई

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  3. जो फसे हुए हैं दोहरी मानसिकता वालों के बीच
    यानी जीवन की लगाम भी
    उन्हीं के हांथों में है
    वो जो किसी के लिए
    वक़्त के साथ वदले हैं
    और किसी के लिए नहीं !

    जायज़ प्रश्न है ... बहुत अच्छी अभिव्यक्ति

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  4. परम्परा तो संवाद की है, संवाद समाप्त, परम्परा समाप्त।

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  5. गज़ब की सोच का परिचायक है ये कविता………………बदलना ही पडेगा अब सोच को, परम्पराओ को।

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  6. कविता दिन-बा-दिन और अच्छी होती जा रही हैं.. बहुत बढ़िया.. गार्गी को स्नेह और आप दोनों को शुभकामनाएं.

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  7. गार्गी भाभी जी की बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना! शुभकामनायें !

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  8. यानी जीवन की लगाम भी
    उन्हीं के हांथों में है
    वो जो किसी के लिए
    वक़्त के साथ वदले हैं
    और किसी के लिए नहीं !
    क्या इन्हें परम्परावादी कहेंगे ?

    कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत रचना के लिए हार्दिक शुभकामनायें गार्गी जी.

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  9. परंपरा से पता चलता है कि ऐसे लोग भी पहले से ही चले आ रहे हैं।

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  10. आपका शुक्रिया... जो आप प्रिय गार्गी की उम्दा सोच को हमसे साझा करते हैं।..

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  11. क्रन्तिकारी सोच की सशक्त रचना ....
    लेखनी अबाध चलती रहे.....

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  12. bahut hi shandaar!
    vivj200.blogspot.com

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